कल भरे बाजार में किसी ने किसी को जोर से पागल कह कर पुकारा । कोई बोला – ओ पागल !
बाजार में कोई आ रहा था, कोई बाजार से जा रहा था । कोई पैदल था, कोई स्कूटर-साइकिल पर; पर एक बात सबकी एक जैसी थी, सबने पलट कर एक साथ देखा । सब को यही लगा कि उसे ही पुकारा गया है । दुकानदार भी ग्राहक से ध्यान हटा कर बारह झाँकने लगे तो ग्राहक भी सिर घुमा कर देखने लगे कि कहीं कोई उन्हें तो नहीं बुला रहा है ?
सब्जी खरीदती कुक्कू की माँ ने तो कुक्कू को यहाँ तक कह दिया कि देख तेरा बाप आया है क्या? जरूर वही होगा । पूरा पागल है । कहीं भी चैन नहीं लेने देता । और इतनी भी अकल नहीं, भरे बाजार में अपने पति को पागल कह कर बुला दिया ।
देखो यहाँ सब पागल हैं । और पागलों की एक विशेषता होती है, वे अपने को छोड़कर शेष सभी को पागल समझते हैं । इसीलिए तो हर वह पागल जो दिन रात दूसरों को पागल बताता है, अपने को पागल कहने वाले को मारने दौड़ता है ।
कहाँ तक कहें? मुझे याद आता है कि एक बार एक संत को उनका एक शिष्य जो पागलों का डाक्टर था, पागलखाना दिखाने ले गया। वहाँ एक कोने में कईं पागल बैठे रो रहे थे। उन सब के बीच एक पागल चुपचाप बैठा था। डाक्टर ने उससे पूछा ये क्यों रो रहे हैं? वह बोला- कोई मर गया है। डाक्टर ने पूछा- फिर तुम क्यों नहीं रो रहे हो? वह पागल बोला- पागल! मैं ही तो मरा हूँ।
आगे देखा तो एक पागल शीशा देख रहा था और अपने प्रतिबिम्ब को कह रहा था- तुझे कहीं देखा है। कहाँ देखा है यह याद नहीं आ रहा। ओह! तूं तो वही है जो कल मेरे साथ बाल कटवा रहा था।
और एक पागल तो दहाड़ मार कर रोता और अपनी जेब से एक तस्वीर निकाल कर सिर पीटता। संत ने पूछा- इसे क्या हुआ? डाक्टर ने बताया- यह जिस लड़की से विवाह करना चाहता था, उसने किसी दूसरे से विवाह कर लिया।
और आगे बढ़े तो एक पागल पिंजरे में बंद था, वह तो पिंजरे में सिर मार रहा था। संत ने पूछा- इसे क्या हुआ? डाक्टर ने कहा- यही वह दूसरा है। जिससे उस लड़की ने विवाह किया।
आप यह मत समझना कि यहाँ किसी और की चर्चा है। यहाँ हमारा ही जिक्र चल रहा है। वह जो कुछ न मिलने पर रो रहा है, जरा उसकी ओर भी तो झांक कर देखे जिसे मिला। वह और भी जोर जोर से रो रहा है।
मैं (रवि मैंदोला) कहता हूँ कि पागल मैं भी हूँ – पर मेरा पागलपन किसी और ही प्रकार का है । मैं उल्टा पागल हूँ । आप भी एक काम करें, पागल शब्द को उल्टा कर दें । तो बनता है लगपा, मतलब लग और पा अर्थात छोड़ पागलों की बस्ती, नाम जप में लग और भगवान को पा…क्यूंकि यही एक अंतिम खोज हैं ।
लोग भूल गए हैं कि भक्ति का एक अर्थ है सत्संग, सेवा का भाव होना और धैर्य व्यक्तित्व में उतरे । तीनों बातें भक्ति का गहना हैं । जिन्हें भक्ति करनी हो उनका लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति हो, लेकिन संसार भी नहीं छोड़ना है । संसार में जो भी जरूरी है वह किया जाना चाहिए । संसार में रहकर अपना लक्ष्य ईश्वर याद रहे, यह काम सत्संग करता है । फिर जब ईश्वर को पाने निकले हैं, संसार का भी उपयोग कर रहे हैं, तो सेवा करनी चाहिए । लक्ष्य पर निकले हैं इसलिए अधीर होना स्वाभाविक है, लेकिन धैर्य बनाए रखें । इसलिए इस भ्रम को दूर किया जाए कि यदि ईश्वर से जुड़ें तो संसार छोड़ना पड़ेगा या संसार से जुड़ जाएं तो ईश्वर छूट जाएगा ।