जैसे जैसे हम आधुनिकता की और बढ़ते जा रहे हैं अपने लोकपर्वों को भूलते जा रहे हैं जबकि हमारे सारे लोक पर्व हमको सीधे प्रकृति से जोड़ते हैं । चाहे हरेला हो, घी संक्रांति हो, रूटल्या त्यौहार हो या फिर अन्य कोई भी पर्व हो । आज सभी लोग हरेला पर्व धूम-धाम से मना रहे हैं जगह-जगह वृक्षा रोपण किया जा रहा है और हरे भरे आभूषणों से प्रकृति का श्रृंगार किया जा रहा है । लेकिन एक पर्व ऐसा भी है जिसे हमने पूर्ण रूप से भुला दिया। जी हाँ ! आज मैं बात कर रही हूँ रूटल्या त्यौहार की ।
आषाढ़ मास की सेकन्त के दिन मनाया जाने वाला लोक पर्व रूटल्या त्यौहार अब शायद ही किसी को याद हो । इस दिन सभी घरों में उड़द, गहथ, रयान्स, लोबिया जो भी दाल घर पर उपलब्ध हो उसकी पुडिंग से भरी रोटी बनाकर घी के साथ खायी जाती है । क्योंकि अब तक सभी प्रकार की दालें खेतों में बौ दी जाती हैं और खेतों में दाल की नई फसल भी तैयार होने लगती है ।
दूसरा जो रूटल्या त्यौहार मनाने का मुख्य कारण है खरीफ़ की फ़सल में कौणी (एक प्रकार का पहाड़ी अनाज) । यह त्यौहार कौणी की बाल आने के उपलक्ष्य में मनायी जाती है। कहते हैं कि कोणी की बाल हमेशा सावन की संक्रन्ति से पहले आ जाती है। एक ओर बरसात में जब सभी प्रकार के अनाज के बीज मौसम की नमी के कारण उगने लगते हैं (बीजों का जर्मिनेशन) तो हमारे कुछ शाकाहारी पक्षी जैस गौरैया, घुघुती, आदि पक्षियों के लिए भोजन का अकाल हो जाता है, तब यही कौणी प्रकृति में उनके भोजन का एक मात्र सहारा होती है।
पूर्व में सावन के पवित्र मास में इन पक्षियों को जिमाने का भी प्रचलन हमारे पहाड़ी क्षेत्रों में खूब था । इनके भोजन की व्यस्था के लिए लोग अपने आँगन में इन पक्षियों के लिये अनाज के दाने डाल कर चुगाते थे । आज जहाँ गौरैया को बचाने की एक मुहीम लोग चला रहे हैं वहीं हमारे ये लोक पर्व पहले से प्राकृतिक सन्तुलन को बनाये रखने में सहायक थे।
कौणी एक बहुत ही पौष्टिक अनाज है । यह कैल्शियम का एक अच्छा स्रोत है और इसमें सबसे अधिक मात्रा में फाइबर होता है। इससे चाँवल और आटा दोनों बनाये जाते हैं और सुगर के रोगियों के लिये यह बहुत फायदेमंद हैं । कौणी आज एक विलुप्त प्रायः अनाज हो गया है बहुत से लोग शायद उस अनाज से परिचित भी न हो । अब समय आ गया है की हमें एक मुहीम अपने पारम्परिक पर्व और अनाज बचाने के लिए भी हमको चलानी ही होगी ।
©️®️ अंजना कण्डवाल ‘नैना’